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रविवार, 17 अप्रैल 2011

3 थे भाई: लचर भाषा और कल्पना

3 थे भाई: लचर भाषा और कल्पना




मुख्य कलाकार : ओमपुरी, श्रेयस तलपडे, दीपक डोबरियाल, रागिनी खन्ना, योगराज सिंह

निर्देशक : मृगदीप सिंह लांबा

तकनीकी टीम : निर्माता- राकेश ओमप्रकाश मेहरा, गीत- गुलजार, संगीत- दलेर मेहदी, रंजीत बारोट, सुखविंदर सिंह, रजत ढोलकिया

किसी फिल्म में रोमांस का दबाव नहीं हो तो थोड़ी अलग उम्मीद बंधती है। मृगदीप सिंह लांबा की 3 थे भाई तीन झगड़ालु भाइयों की कहानी है, जिन्हें दादाजी अपनी वसीयत की पेंच में उलझाकर मिला देते हैं। किसी नीति कथा की तरह उद्घाटित होती कथानक रोचक है, लेकिन भाषा, कल्पना और बजट की कमी से फिल्म मनोरंजक नहीं हो पाई है।

चिस्की, हैप्पी और फैंसी तीन भाई है। तीनों के माता-पिता नहीं हैं। उन्हें दादाजी ने पाला है। दादाजी की परवरिश और प्रेम के बावजूद तीनों भाई अलग-अलग राह पर निकल पड़ते हैं। उनमें नहीं निभती है। दादा जी एक ऐसी वसीयत कर जाते हैं, जिसकी शर्तो को पूरी करते समय तीनों भाइयों को अपनी गलतियों का एहसास होता है। उनमें भाईचारा पनपता है और फिल्म खत्म होती है। नैतिकता और पारिवारिक मूल्यों का पाठ पढ़ाती यह फिल्म कई स्तरों पर कमजोर है।

तीनों भाइयों में हैप्पी की भूमिका निभा रहे दीपक डोबरियाल अपनी भूमिका को लेकर केवल संजीदा हैं। उनकी ईमानदारी साफ नजर आती है। ओम पुरी लंबे अनुभव और निरंतर कामयाबी के बाद अब थक से गए हैं। उनकी लापरवाही झलकने लगती है। श्रेयस तलपडे को मिमिक्री का ऐसा छूत लगा है कि वे अपने किरदारों को इससे बचा ही नहीं पाते। यह उनकी सीमा बनती जा रही है। ऊपर से 3 थे भाई में भाषा और संवाद की बारीकियों पर ध्यान नहीं दिया गया। श्रेयस की एंट्री पंजाबी लहजे के संवाद से होती है और फिर वे दृश्य बदलने के साथ लहजा बदलते जाते हैं। संवादों का सरल होना गुण है, लेकिन हर भाव का सरलीकरण हो जाए तो नाटकीयता और प्रभाव पर असर होता है। आखिर हम एक फिल्म देख रहे हैं। दृश्य और भाव के अनुरूप भाषा भी सजी और समृद्ध होनी चाहिए। फिल्म का थीम गीत 3 थे भाई बार-बार तीनों भाइयों के स्वभाव की याद दिलाता है, लेकिन कुछ समय के बाद वही गीत खटकने लगता है।

3 थे भाई में अपेक्षित गति और विस्तार नहीं है। एक कमरे में आ जाने के बाद तीनों भाई बंध जाते हैं। उनके हाथ-पांव बंधना, उनका गिरना-पड़ना और एक-दूसरे को पछाड़ना.. सारी कोशिशों के बवाजूद हंसी की लहर नहीं उठती। बर्फबारी के दृश्यों में लॉजिक नहीं है। घुटने भर जमी बर्फ अगले ही दिन कैसे पिघल जाती है? और हां, अंगवस्त्रों एवं गैस की बीमारी को लेकर गढ़े गए दृश्य फूहड़ और फिजूल हैं। फूहड़ फैशन चल गया है.. किसी के पा.. पर हंसने का।